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Ve Kaise Din They | Kirti Choudhary

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वे कैसे दिन थे | कीर्ति चौधरी

वे कैसे दिन थे

जब चीज़ें भागती थीं

और हम स्थिर थे

जैसे ट्रेन के एक डिब्बे में बंद झाँकते हुए

ओझल होते थे दृश्य

पल के पल में—

...कौन थी यह तार पर बैठी हुई

बुलबुल, गौरय्या या नीलकंठ?

आसमान को छूता हुआ

सवन का जोड़ा था?

दूरी पर झिलमिल-झिलमिल करती

नदिया थी?

या रेती का भ्रम?

कभी कम कभी ज़्यादा

प्रश्न ही प्रश्न उठते थे

हम विमूढ़ ठगे-से

सुलझाते ही रहते

और चीज़ें हो जाती थीं ओझल

वे कैसे दिन थे

जो रहे नहीं।

सीख ली हमने चाल समय की

भागने लगे सरपट

बदल गए सारे दृश्य

शाखों पर दुबकी भूरी चिड़ियों ने

कुतूहल से देखा हमें

हवा ने बढ़ाई बाँह

रसभीनी गंधमयी

लेकिन हम रुके नहीं

हमने सुनी ही नहीं

झरनों की कलकल

ताड़ पत्रों की बाँसुरी

पोखर में खिले रहे दल के दल कमल

और मुरझाए-से हम

आगे और आगे

भागते ही रहे

छोड़ते चले ही गए

जो कुछ पा सकते थे

हाथ रही केवल

यही अंतहीन दौड़

और छूटते दिनों के संग

पीछे सब छूट गया।

  continue reading

450 פרקים

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वे कैसे दिन थे

जब चीज़ें भागती थीं

और हम स्थिर थे

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ओझल होते थे दृश्य

पल के पल में—

...कौन थी यह तार पर बैठी हुई

बुलबुल, गौरय्या या नीलकंठ?

आसमान को छूता हुआ

सवन का जोड़ा था?

दूरी पर झिलमिल-झिलमिल करती

नदिया थी?

या रेती का भ्रम?

कभी कम कभी ज़्यादा

प्रश्न ही प्रश्न उठते थे

हम विमूढ़ ठगे-से

सुलझाते ही रहते

और चीज़ें हो जाती थीं ओझल

वे कैसे दिन थे

जो रहे नहीं।

सीख ली हमने चाल समय की

भागने लगे सरपट

बदल गए सारे दृश्य

शाखों पर दुबकी भूरी चिड़ियों ने

कुतूहल से देखा हमें

हवा ने बढ़ाई बाँह

रसभीनी गंधमयी

लेकिन हम रुके नहीं

हमने सुनी ही नहीं

झरनों की कलकल

ताड़ पत्रों की बाँसुरी

पोखर में खिले रहे दल के दल कमल

और मुरझाए-से हम

आगे और आगे

भागते ही रहे

छोड़ते चले ही गए

जो कुछ पा सकते थे

हाथ रही केवल

यही अंतहीन दौड़

और छूटते दिनों के संग

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