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Atma-Bodha Lesson # 31 :

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आत्म-बोध के 31st श्लोक में आचार्यश्री हमें बता रहे हैं की पिछले श्लोक में हमने बताया था की अपनी उपाधियों के बारे में महत्त्व-बुद्धि का निषेध करने के बाद आत्मा के यतार्थ का ज्ञान होता है। उसी क्रम में अब इस श्लोक में कह रहे हैं की निषेध करने का अर्थ होता है किसी वास्तु को अनित्य एवं आसार देखना। अपने स्थूल शरीर से लेकर अविद्या रुपी कारण शरीर तक समस्त उपाधियों को सबको स्पष्टता से देखें की ये सब दृश्य हैं, अतः इनमे भी अन्य दृश्य पदार्थों के सभी धर्म विद्यमान हैं। अपने शरीरों को ऐसे देखने पर स्वतः उनका निषेध हो जाता है, और तब हम आत्मा को ब्रह्म जान सकते हैं। अगर कल्पनाएं मन की गहराईयों में बनी रहती हैं तब अपने को ब्रह्म बोलना जाग्रति में पर्यवसित नहीं होता है।

इस पाठ के प्रश्न :

१. अपने शरीरों के निषेध करने का क्या अर्थ होता है?

२. किसी भी दृश्य पदार्थ के अन्दर क्या धर्म होते हैं?

३. क्या निषेध के बजाय हम सतत अपनी ब्रह्मस्वरूपता का ध्यान करें तो क्या ज्ञान हो जायेगा?

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आत्म-बोध के 31st श्लोक में आचार्यश्री हमें बता रहे हैं की पिछले श्लोक में हमने बताया था की अपनी उपाधियों के बारे में महत्त्व-बुद्धि का निषेध करने के बाद आत्मा के यतार्थ का ज्ञान होता है। उसी क्रम में अब इस श्लोक में कह रहे हैं की निषेध करने का अर्थ होता है किसी वास्तु को अनित्य एवं आसार देखना। अपने स्थूल शरीर से लेकर अविद्या रुपी कारण शरीर तक समस्त उपाधियों को सबको स्पष्टता से देखें की ये सब दृश्य हैं, अतः इनमे भी अन्य दृश्य पदार्थों के सभी धर्म विद्यमान हैं। अपने शरीरों को ऐसे देखने पर स्वतः उनका निषेध हो जाता है, और तब हम आत्मा को ब्रह्म जान सकते हैं। अगर कल्पनाएं मन की गहराईयों में बनी रहती हैं तब अपने को ब्रह्म बोलना जाग्रति में पर्यवसित नहीं होता है।

इस पाठ के प्रश्न :

१. अपने शरीरों के निषेध करने का क्या अर्थ होता है?

२. किसी भी दृश्य पदार्थ के अन्दर क्या धर्म होते हैं?

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