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Swami Atmananda Podcasts

Swami Atmananda Saraswati

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Podcasts by 'Swami Atmananda Saraswati' of 'Vedanta Ashram, Indore' (MP), India. These are short audio clips of topic of Vedanta - in Hindi. One of our recent series is an Online Study Class on 'Atma-Bodha', a short treatise of 68 shlokas Self-Knowledge. It is written by Sri Adi Shankaracharya.
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उपदेश सार के अंतिम, ११वें प्रवचन में पूज्यपाद श्री स्वामी आत्मानन्द जी महाराज बताते हैं की पूर्व के श्लोक में आत्मा-चिंतन का महादेव ने तरीका बताया अब इसका एक और सरल उपाय बताते हैं। यह है - पांचकोश विवेक। साधक को एक एक करके उपाधियों में अपनी एटीएम बुद्धि को समाप्त करना चाइये तब ही आत्म-ज्ञान में स्थिरता होती है। विपरीत ज्ञान ही ज्ञान में निष्ठां के …
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उपदेश सार के १०वें प्रवचन में पूज्य गुरूजी श्री स्वामी आत्मानन्द जी महाराज बताते हैं की अपने मन पर विचार करने के लिए एक सरल उपाय होता है। वे बताते हैं की मन वृत्तियों का प्रवाह होता है। हमारे मन में प्रत्येक वृत्ति किसी न किसी विषय की तरफ हमारा ध्यान मोड़ती है। अतः मोटे तौर से इन सब वृत्तियों को 'इदं वृत्ति" कहा जाता है। यद्यपि ज्यादातर वृत्तियाँ इद…
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उपदेश सार के ९वें प्रवचन में पू स्वामी आत्मानन्द जी ने बताया की एक-चंतन रुपी साधना के लिए महर्षि कहते हैं जब तक दूसरे का अस्तिव्त है तब तक ही मन कहीं भटकेगा लेकिन जब अन्य मिथ्या हो जाता है और आत्मा ही सत्य जान ली जाती है तब मन कहाँ जायेगा? इसके लिए वे केहते हैं की अपने मन में जो कोई भी विचार हैं उन्हें दृश्यवारित अर्थात दृश्य से रहित कर देना चाहिए।…
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उपदेश सार के ८वें प्रवचन में पू स्वामी आत्मानन्द जी ने बताया की जब किसी पुण्यात्मा ने अपने जीवन में भक्ति का आशीर्वाद प्राप्त कर लिया तो निश्चित रूप से उसका मन शान्त और सात्त्विक हो जाता है, लेकिन जब तक ईश्वर के चरणों में अनुराग प्राप्त नहीं होता है, तब तक मन इधर-उधर भटकता है। कई बार आँधियों और तूफ़ान आते हैं, ऐसे मन को कैसे निग्रहीत करा जाये। इसके …
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उपदेश सार के सातवें प्रवचन में पू स्वामी आत्मानन्द जी ग्रन्थ के ८वें से लेकर १०वें श्लोक पर चर्चा करते हैं। भक्ति की साधना मोठे तौर से दो भागों में विभाजित होती है। एक में भगवान् अभी भक्त से अलग होते हैं, वे हम से अलग किसी लोक में रहते हैं, तथा बाद में कुछ लोग भगवन को अपने ह्रदय में अंतर्यामी की तरह से जानते हैं। ऐसे भक्त कभी अपने को भगवान् का अंश …
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उपदेश सार के छठे प्रवचन में पू स्वामी आत्मानन्द जी ग्रन्थ के ५वें से लेकर ७वें श्लोक पर प्रकाश डालते हैं। ये तीनों श्लोक पिछले श्लोक में बताई गयी तीनों साधनाओं का स्वरुप दिखाते हैं। अर्थात, पूजा क्या होती है, जप क्या है और कैसे होता है और ध्यान किसे कहते हैं।
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उपदेश सार के पांचवे प्रवचन में ग्रन्थ के चौथे श्लोक पर प्रकाश डालते हुए पूज्य स्वामी जी ने बताया कि इस श्लोक से भगवान् हमें ईश्वर भक्ति की प्राप्ति के साधन बता रहे हैं। हमारी तीन धरातल की चर्चा करते हुए वे कहते हैं की एक हमारा शारीरिक धरातल होता है, एक इन्द्रिय, और विशेष रूप से वाणी का और तीसरा अत्यंत महत्वपूर्ण हमारे मन का धरातल होता है। हमें अपनी…
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उपदेश सार के चौथे प्रवचन में ग्रन्थ के तीसरे श्लोक पर प्रकाश डालते हुए पूज्यपाद श्री स्वामी जी महाराज ने बताया कि पिछले श्लोक में महादेवजी ने बताया की कर्म कब मन रुपी मुकुर (शीशे) करने वाला बन जाता है, और अब इस श्लोक में वे बताते हैं की कर्म कब बंधनकारी बन जाता है। जिसकी प्राथमिकताएँ लौकिक वस्तुओं की होती हैं वे लोग ही बाहरी घटनाओं से प्रभावित होते…
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उपदेश सार के तीसरे प्रवचन में ग्रन्थ के दूसरे श्लोक पर प्रकाश डालते हुए पूज्यपाद श्री स्वामी आत्मानन्द जी महाराज ने बताया कि कर्म अत्यंत समर्थ होता है। अनेकानेक लौकिक आवश्यकताएं कर्म से ही प्राप्त हो सकती हैं, इसलिए कर्म अवश्य करना चाहिए। कर्म केवल अपनी लौकिक जरूरतों के लिए नहीं होता है, लेकिन एक कर्म का अत्यंत महान और दिव्य सामर्थ्य के लिए भी होता…
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उपदेश सार पर अपने दूसरे प्रवचन में उपदेश सार के पहले ष्लोक पर प्रकाश डालते हुए पूज्य स्वामी आत्मानन्द जी महाराज ने बताया कि भगवान शंकर अपने प्रिय कर्मनिष्ठ एवं तपस्वी भक्तों को एक मोक्षदायी उपदेश देने के लिए भूमिका बनाते हैं और पहले श्लोक में कुछ महत्वपूर्ण बातें बताते हैं। पहली चीज़ वे कहते हैं की : १. कर्म सदैव अपने स्पष्ट संकल्प से प्रारम्भ करना …
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उपदेश सार ग्रन्थ पर प्रवचन श्रृंखला का शुभारम्भ करते हुए पूज्य स्वामी आत्मानन्द जी महाराज ने इसकी भूमिका बताई। शिव पुराण के अंतर्गत प्राप्त इस कथा में उन्होंने बताया की - जब कुछ कर्म निष्ठ तपस्वी लोग अनेकानेक जीवन के लक्ष्य रखते थे और कर्म के साथ-साथ ईश्वर से भक्ति-पूर्वक आशीर्वाद भी प्राप्त करते थे तो उन्हें निश्चित रूप से बहुत सिद्धियां प्राप्त ह…
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आत्म-बोध के आखिरी, अर्थात 68th श्लोक में भगवान् शंकराचार्यजी महाराज हमें आत्म-ज्ञान की प्राप्ति के तरीके और यात्रा को एक तीर्थ यात्रा से तुलना करते हैं। जैसे एक तीर्थ यात्रा किसी दूरस्थ देवता के दर्शन की तीव्र उत्कंठा से प्रेरित होती है, और जहाँ जाने के लिए हमें अपने समस्त परिवार के लोग, धन-दौलत, घर-बार आदि के प्रति मोह किनारे करना पड़ता है और ऐसी ज…
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आत्म-बोध के 67th श्लोक में भगवान् शंकराचार्यजी महाराज हमें आत्म-ज्ञान के उदय को एक सूर्य उदय से तुलना करते हैं। जैसे जब सूर्योदय होता है, तब दुनिया में विराजमान अन्धकार तत्क्षण दूर हो जाता है, और इसके फल-स्वरुप अन्धकार के समस्त कार्य भी दूर हो जाते हैं। उसी प्रकार अपने यथार्थ से अनभिज्ञ हम सब अनेकानेक कल्पनाओं में पड़े हुए हैं। हम लोगों का पूरा संसा…
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आत्म-बोध के 66th श्लोक में भगवान् शंकराचार्यजी हमें अपने ब्रह्म-ज्ञान हेतु पूरी यात्रा का सारांश बता रहे हैं। वे कहते हैं की याद करो की यह तुम्हारी आध्यात्मिक यात्रा कहाँ से प्रारम्भ हुई थी। हम सब के अंदर एक अपूर्णता थी, असुरक्षा थी, जिसकी निवृत्ति के लिए अनेकानेक आकांक्षाएं थी। इन कामनाओं के कारण अनेकों आसक्तियां, राग और द्वेष उत्पन्न हो जाते हैं।…
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आत्म-बोध के 65th श्लोक में भगवान् शंकराचार्यजी हमें ब्रह्म-ज्ञानी की दृष्टी के बारे में बताते हैं। जो तत्त्व के अज्ञानी होते हैं, वे दुनियां को सतही दृष्टि से ही देखते हैं इसलिये उतने मात्र को ही सत्य मानते हैं। विविध रूप और उनके नाम, हो हमारे शरीर से किसी भी तरह से जुड़े हुए हैं वे ही अपने समझे जाते हैं, अन्य सब पराये होते हैं। ऐसे लोगों की दृष्टी …
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आत्म-बोध के 64th श्लोक में भगवान् शंकराचार्यजी हमें ब्रह्म-ज्ञान में सतत रमने के लिए ज्ञान और प्रेरणा दे रहे हैं। अगर हमारा ज्ञान सदैव एकांत में बैठ के ही संभव होता है तो समझ लीजिये की अभी जगत के मिथ्यात्व की सिद्धि नहीं हुई है। एक बार ज्ञान की स्पष्टता हो जाये उसके बाद एकांत से निकल कर विविधता पूर्ण दुनिया के मध्य में, व्यवहार में अवश्य जाना चाहिए…
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आत्म-बोध के 63rd श्लोक में भगवान् शंकराचार्यजी हमें ब्रह्म की अद्वितीयता की सिद्धि का तरीका बताते हैं। ध्यान रहे की जब तक द्वैत रहता है तब तक हमारा छोटापना, अर्थात जीव-भाव बना रहता है - तब तक कितना भी ज्ञान प्राप्त करलो मुक्ति नहीं मिलती है। द्वैत का मतलब होता है की हमारी यह धरना की हमसे पृथक किसी स्वतंत्र वस्तु का अस्तित्व है। यही नहीं वह वस्तु ही…
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आत्म-बोध के 62nd श्लोक में भी भगवान् शंकराचार्यजी हमें ब्रह्म की प्रकाश स्वरूपता की विलक्षणता दिखा रहे हैं। ब्रह्म की प्रकाशरूपता दिखने के लिए कई बार सूर्य के दृष्टांत का प्रयोग किया जाता है। इस दृष्टांत में प्रकाश-रूपता की तो साम्यता है, लेकिन एक समस्या भी होती है, और वो है सूर्य जैसे एकदेशीय होने की संभावना। समस्त लौकिक प्रकाश एकदेशीय होते हैं, औ…
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आत्म-बोध के 61st श्लोक में भी भगवान् शंकराचार्यजी हमें ब्रह्म की महिमा बता रहे हैं। हम लोग सतत कुछ तलाश करते रहते हैं। ऐसे चीज़ की तलाश जो हमें और सुखी एवं करदे। लेकिन विडम्बना यह है, की पूरी दुनियाँ में लोग दुखी हैं, संतप्त हैं। तनाव आज कल की दुनिया की बहुत ही बड़ी समस्या बन गयी है। क्यों? क्यों की हम सबने अनेकों वस्तुएं तो प्राप्त करी हैं लेकिन ये …
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आत्म-बोध के 60th श्लोक में भी भगवान् शंकराचार्यजी हमें ब्रह्म की महिमा बता रहे हैं। सत्य की खोज सतत और सर्वत्र होती रहती है। प्रत्येक देश और काल में यह मानव की जिज्ञासा का विषय रहा है। सत्य की खोज करते-करते मनुष्य को अनेकानेक महत्वपूर्ण वस्तुएँ मिल जाती हैं जो की बहुत की काम की भी होती हैं, कई बार हम लोग उन महत्वपूर्ण और उपयोगी वस्तुओं को अपना भगवा…
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आत्म-बोध के 59th श्लोक में भी भगवान् शंकराचार्यजी हमें ब्रह्म की एक और महिमा बता रहे हैं। संसारी लोगों की दुनिया से आये हम सब की बुद्धि एक बहुत बड़े दोष से युक्त होती है - और वो है की ब्रह्म को भी अन्य किसी विषय की तरह से बाहरी, ग्राह्य एवं कर्म के प्राप्त करने योग्य वस्तु समझना। कर्म की सीमाओं की चर्चा आत्म-बोध के प्रारम्भिक श्लोकों में करी जा चुकी…
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आत्म-बोध के 58th श्लोक में भी भगवान् शंकराचार्यजी हमें ब्रह्म की महिमा बता रहे हैं। अपने मन को भी ब्रह्म में निष्ठ करने के लिए वे चर्चा कर रहे हैं - आनन्द की। हम लोगों की बुद्धि में ब्रह्म-ज्ञान की स्पष्टता होनी चाहिए, और मन में ब्रह्म-ज्ञान हेतु निष्ठा। हम सबका मन, भले वो छोटा व्यक्ति हो या बड़ा, पढ़ा-लिखा हो या अनपढ़, देसी हो या विदेशी, संसारी हो या…
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आत्म-बोध के 57th श्लोक में भी भगवान् शंकराचार्यजी हमें ब्रह्म की महिमा, उसके एक प्रसिद्द लक्षण के द्वारा बताते हैं। आचार्य कह रहे हैं, की हम सब ने ब्रह्म के बारे में अनेकों से सुना होगा, लेकिन हमें सदैव शास्त्रोक्त लक्षण को ही प्रधानता देनी चाहिए। ब्रह्म वो है जो की अतत-व्यावृत्ति लक्षण के द्वारा वेदांत शास्त्रों में लक्षित किया जाता है। पू स्वामीज…
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आत्म-बोध के 56th श्लोक में भी भगवान् शंकराचार्यजी हमें ब्रह्म की महिमा उसका वास्तविक अर्थ बता रहे हैं। श्लोक का अंतिम पद समान है - की उसको ही ब्रह्म जानो। किसको? जो श्लोक में पूर्ण तत्व है। जो सचिदानन्द स्वरुप है। वो ही तीनों दिशाओं में अपनी माया से विविध रूपों में अभिव्यक्त हो रहा है। तीन दिशाएं मतलब - ऊपर, नीचे और पृथ्वी के ऊपर। जो स्वतः अनंत है,…
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आत्म-बोध के 55th श्लोक में भी भगवान् शंकराचार्यजी हमें ब्रह्म-ज्ञान में पूरे दिल से निष्ठ होकर उसी में रमने के लिए ब्रह्म की कुछ और महिमा बता रहे हैं। पू गुरूजी यहाँ पर बताते हैं की प्रत्येक मनुष्य में एक दिमाग और एक दिल होता है। वेदान्त में पहले दिमाग को प्रबुद्ध किया जाता है और फिर अपनी ही बुद्धि से अपने ही दिल में ज्ञान उतारा जाता है। यह पढ़ाओ सब…
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आत्म-बोध के 54th श्लोक में भी भगवान् शंकराचार्यजी हमें ब्रह्म-ज्ञान में पूरे दिल से निष्ठ होकर उसी में रमने के लिए ब्रह्म की महिमा बता रहे हैं। ये श्लोक उनके लिए भी हो सकते हैं जो अभी पूरे दिल से ब्रह्म-ज्ञान के लिए समर्पित नहीं हुए हैं और अभी भी बहिर्मुख हैं, अर्थात किसी न किसी दुनिया की वस्तुओं से तृप्त होना चाहते हैं। वे कहते हैं की उसे ब्रह्म ज…
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आत्म-बोध के 53rd श्लोक में भी भगवान् शंकराचार्यजी हमें जीवन्मुक्त के अंतिम क्षण हैं - कि वे अंतिम क्षण में ब्रह्म में कैसे लीं होते हैं। पहले तो यह बात स्पष्ट करनी चाहिए की ब्रह्म-ज्ञानी के लिए शरीर के मरने से ब्रह्म में लीन होने का कोई सम्बन्ध नहीं होता है। ईश्वर के अवतार में भी यह सिद्धांत स्पष्ट हो जाता है की भगवान् शरीर के रहते-रहते पूर्ण रूप स…
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आत्म-बोध के 52nd श्लोक में भी भगवान् शंकराचार्यजी हमें जीवन्मुक्त के कुछ और लक्षण देते हैं। इस श्लोक की दो लाइन में वे दो महत्वपूर्ण लक्षण देते हैं। ये दोनों लक्षण ऐसे हैं जिनमे अनेकानेक वेदान्त जिज्ञासु फसें रहते हैं और इनसे ऊपर नहीं उठ पाते हैं, और इनके चलते अपने गुरु से प्राप्त दिव्य ज्ञान को चौपट कर देते हैं। अर्थात ये दो ऐसे महत्वपूर्ण बिंदु ह…
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आत्म-बोध के 51st श्लोक में आचार्यश्री हमें जीवन्मुक्त के कुछ और लक्षण देते हैं। वे कहते हैं की जीवन्मुक्त की जीवन की यात्रा में सर्वप्रथम यह जाना की जो भी बाहरी - अर्थात इन्द्रियग्राह्य वस्तुएँ होती हैं वे सब अनित्य होती हैं। इनके ऊपर निर्भर होना इनसे आसक्ति हो जाना ही समस्त दुःख का मूल होता है। इसलिए वेदान्त के अधिकारी में वैराग्य होना चाहिए। भगवा…
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आत्म-बोध के 50th श्लोक में आचार्यश्री हमें जीवन्मुक्त के जीवन की यात्रा रामायण के दृष्टांत से समझते हैं। रामायण की जो मूल शिक्षा है वो इन जीवन्मुक्त ने समझ ली एवं रामजी ने अपने जीवन से जो आध्यात्मिक शिक्षा प्रदान करी है वो भी प्राप्त कर ली है। रामायण में प्रत्येक मनुष्य के जीवन की आत्मा-कथा बताई गयी है। जहाँ पहले उसके मन की शांति गायब हो जाती है और…
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आत्म-बोध के 49th श्लोक में आचार्यश्री हमें जीवन्मुक्त के बारे में बताते हैं। जीवन्मुक्त उसको कहते हैं जो शरीर के रहते-रहते मुक्त हो गया है। जिसने यहीं पर अपने आप को ब्रह्म जान लिया है। हम सब मूल रूप से ब्रह्म थे, और सदैव रहेंगे - अतः अपनी ब्रह्मस्वरूपता में जगाने के लिए कोई कर्म नहीं करने पड़ते हैं, केवल अपने मोह और अज्ञान को दूर करा जाता है। जीवन्म…
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आत्म-बोध के 48th श्लोक में आचार्यश्री हमें आत्मा के विज्ञानं एक और लक्षण देते हैं - और वो है अद्वैत सिद्धि। विज्ञान से अद्वैत सिद्धि होती है, यह ही मुक्ति है। प्रारम्भ होता है ज्ञान से - जब हम अपने शास्त्र और गुरु से जीवन का सत्य जानते हैं। ज्ञान परोक्ष होता है - अर्थात यह सुनी हुई बात है, न की देखी हुई। विज्ञान देखी हुई बात हो जाती है। इसमें अद्वै…
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वक्ता : पूज्य स्वामी आत्मानन्द सरस्वतीजी आत्म-बोध के 47th श्लोक में आचार्यश्री हमें आत्मा के विज्ञानं अर्थात आत्म-साक्षात्कार के दो महत्वपूर्ण लक्षण दिखाते हैं। जब हम अपने शरीर और मन आदि उपाधि के अपने को अलग देख रहे हैं तो हम और हमारी दुनिया दोनों अलग दिख रहे होते हैं। पहला लक्षण है - कि हम पूरी दुनियाँ को अपने अन्दर देखते हैं। हम अधिष्ठान हैं और स…
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वक्ता : पूज्य स्वामी आत्मानन्द सरस्वतीजी आत्म-बोध के 46th श्लोक में आचार्यश्री हमें आत्म-साक्षात्कार अर्थात आत्म-अनुभव का क्या चमत्कारी प्रभाव होता है वो बताते हैं। सबसे पहले तो आत्मानुभव के बारे में पू गुरूजी ने यह स्पष्ट किया की यह साक्षात्कार जीव-भाव बाधित करने के बाद ही होता है। अगर हम रस्सी को सर्प समझते ही रहेंगें तब तक उसके अधिष्ठान की असलिय…
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आत्म-बोध के 45th श्लोक में आचार्यश्री एक अत्यंत महत्वपूर्ण विषय पर प्रकाश डाल रहे हैं। यह विषय है की आत्मा का दर्शन और उसमे निष्ठा कब होगी। क्या हम सदैव आत्मा का ध्यान करें? आचार्य बोलते हैं कि नहीं, आत्मा का नहीं 'जीव' पर ध्यान दो। जीव किसको कहते हैं? ये कैसे उत्पन्न होता है? इसकी संकुचिताएँ कैसे आती हैं, और कैसे जाती हैं? वे कहते हैं की वस्तुतः ज…
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आत्म-बोध के 44th श्लोक में आचार्यश्री हमें एक प्रचलित प्रश्न का उत्तर दे रहे हैं। प्रश्न है - कि, महाराज हमने इतनी साधना करि, इतनी पढ़ाई करी लेकिन अभी तक हमें आत्मा की प्राप्ति नहीं हुई है, कब होगी? ऐसे लोगों को आचार्य कहते है की आत्मा की प्राप्ति किसी दिव्य अज्ञात तत्व की प्राप्ति नहीं होती है। आत्मा तो मैं को बोलते हैं और वो तो प्राप्त ही है। समस्…
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आत्म-बोध के 43rd श्लोक में आचार्यश्री हमें एक अत्यंत महत्वपूर्ण एवं प्रचलित प्रश्न का उत्तर दे रहे हैं। शास्त्र के ज्ञान की क्या आवश्यकता होती है ? क्या हम लोग सीधे ध्यान और समाधी का अभ्यास नहीं कर सकते हैं? इसका उत्तर एक दृष्टांत से देते हैं - जैसे सूर्य के उदय से पूर्व उनका अरुण नामक सारथि अपना रथ लेकर आता है और ज़्यादातर अन्धकार को दूर कर देता है…
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आत्म-बोध के 42nd श्लोक में आचार्यश्री हमें निदिध्यासन रूपी ध्यान की प्रक्रिया को एक दृष्टांत से समझते हैं। वो दृष्टांत है अरणी का। किसी यज्ञ में अग्नि को प्रज्वलित करने के लिए प्राचीन तरीका होता है - दो लकड़ियों के घर्षण और मंथन का। लकड़ियों के घर्षण से अग्नि प्रज्वलित होती है जिससे यज्ञ आदि कार्य संपन्न किये जाते हैं। दो लकड़ियां ऊपर और नीचे होती है …
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आत्म-बोध के 41st श्लोक में आचार्यश्री हमें पिछले श्लोक में बताये गए आत्मा-अभ्यास के विषय पर एक और महत्वपूर्ण दृष्टिकोण से प्रकाश डालते हैं। यह बिंदु है - त्रिपुटी का। त्रिपुटी के अन्दर ही हम सब का पूरा संसार चलता है। जबतक त्रिपुटी है तब तक संसार और संस्करण चलता रहता है। त्रिपुटी बोलते हैं ज्ञाता-ज्ञान और ज्ञेय के भेद को। इस बात पर ध्यान दीजिये - की…
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आत्म-बोध के 40th श्लोक में आचार्यश्री हमें पिछले श्लोक में बताये गए एक बिंदु पर और गहराई से प्रकाश डालते हैं। वो बिंदु है - दृश्य का आत्मा में प्रविलापन। यह प्रविलापन कैसे किया जाता है - वह इस श्लोक में बताया जा रहा है। समस्त दृश्य विविध विषयों से बना है, और सभी विषयों में दो पहलु होते हैं, एक उसका विशिष्ट नाम-रूप और दूसरा उसका तत्त्व। इनकी दोनों क…
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आत्म-बोध के 39th श्लोक में आचार्यश्री हमें निदिध्यासन रुपी ध्यान का स्वरुप बता रहे हैं। वे कहते हैं की जिस एकांत वास में रह कर हमने पिछले श्लोक में ध्यान करने की बात कही थी, उसी ध्यान में क्या करना होता है। वे कहते हैं की जो हमें ये समस्त द्रश्य जगत दिख रहा है, जिसमे ही हम सब अपनी खुशियां ढूंढते रहते हैं, अर्थात हो हमारे लिए अभी तब सत्य था, उसके ऊप…
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आत्म-बोध के 38th श्लोक में आचार्यश्री हमें आत्म-अभ्यास के लिए एक नया आयाम प्रदान कर रहे हैं - वो है ध्यान और समाधी का अभ्यास। ध्यान रहे की हमें यह साधना पहले नहीं प्रदान करी गयी, बल्कि जब हमें अहम् ब्रहास्मि का स्पष्ट ज्ञान हो गया तब ही प्रदान करी जा रही है। जब ज्ञान हुआ ही नहीं है तो किसपे ध्यान करें? इसलिए लोग ध्यान के नाम पर केवल मन को शांत करने…
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आत्म-बोध के 37th श्लोक में भी आचार्यश्री हमें आत्म-अभ्यास क्या है और इससे क्या होता है वो बताते हैं। आत्मा के वास्तविक स्वरुप का पूरे प्रमाण पूर्वक अर्थात शास्त्रोक्त ज्ञान उत्पन्न करके, अपने जीव-भाव को कल्पित जानकर पूर्णतः बाधित करके, अपनी वास्तविकता की पहले तो अपरोक्ष स्पष्टता उत्पन्न करके - उसी में जगे रहना और रमना चाहिए। ये ही अहम्-ब्रह्मास्मि …
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आत्म-बोध के 36th श्लोक में भी आचार्यश्री हमें आत्म-अभ्यास के लिए कुछ और लक्षण प्रदान कर रहे हैं। ध्यान रहे ये लक्षण उन्ही साधकों के लिए हैं जिन्होंने अपने जीव-भाव को बाधित कर दिया है। सर्प के निषेध के बाद ही रज्जु का ज्ञान होता है, और ज्ञान के बाद उस ज्ञान में निष्ठा की साधना होती है। इस श्लोक में आचार्य कह रहे हैं दृढ़ता से इस बात को देखो और उसके प…
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आत्म-बोध के 35th श्लोक में आचार्यश्री हमें आत्म-चिन्तन रुपी अभ्यास के लिए कुछ और लक्षण प्रदान कर रहे हैं। ये लक्षण उन्ही साधकों के लिए हैं जिसने आत्मा के ऊपर से अनात्मा के धर्मों का अपवाद कर दिया है। अगर नहीं तो ये सब कल्पना मात्र हो जायेगा जिसका कोई लाभ नहीं होगा। जब हमने देह आदि से अपने को मुक्त देख लिया है, तब हम मात्र चिन्मयी सत्ता होते हैं, जो…
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आत्म-बोध के 34th श्लोक में आचार्यश्री हमें बता रहे हैं की गुरुमुख से प्रामाणिक अर्थात वेदांत-प्रदीपादित आत्म-बोध प्राप्त करने के बाद उसे अत्यंत तीव्र भावना के साथ आत्मसात करना होता है। अपनी अभी तक की अस्मिता सम्बंधित विपरीत धारणाओं को निराधार समझते हुए उनका निषेध करते हुए, अपनी नई पहचान बहुत ही तीव्रता से हृदयांवित करना चाहिए। ये ध्यान रहे की यहाँ …
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आत्म-बोध के 33rd श्लोक में आचार्यश्री हमें बता रहे हैं की जैसे हम लोगों ने पिछले श्लोक में देखा की अपने आप को शरीर और इन्द्रियों से अलग देखने के कारण उनके धर्म भी हमारे नहीं रहते हैं, उसी प्रकार से अपने को मन से पृथक देखने के कारण मन के भी विकार हमारे नहीं होते हैं। मन के विकार, जैसे दुःख, राग, द्वेष, भय आदि। हम मन नहीं हैं - इस विषय में हम लोगों न…
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आत्म-बोध के 32nd श्लोक में आचार्यश्री हमें बता रहे हैं की पिछले श्लोक में हमने देखा की आत्मा के ऊपर से आत्मा का जो अध्यारोप हुआ है हमें मात्र उसका निषेध करना होता है - और मुक्ति प्राप्त हो जाती है। अब यहाँ इस श्लोक में कह रहे हैं की अनात्मा के निषेध के साथ-साथ अभी तक जो इसके साथ सम्बन्ध रहा था उसके कारण अनात्मा के अनेकानेक धर्म हमारे दिल और दिमाग म…
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आत्म-बोध के 31st श्लोक में आचार्यश्री हमें बता रहे हैं की पिछले श्लोक में हमने बताया था की अपनी उपाधियों के बारे में महत्त्व-बुद्धि का निषेध करने के बाद आत्मा के यतार्थ का ज्ञान होता है। उसी क्रम में अब इस श्लोक में कह रहे हैं की निषेध करने का अर्थ होता है किसी वास्तु को अनित्य एवं आसार देखना। अपने स्थूल शरीर से लेकर अविद्या रुपी कारण शरीर तक समस्त…
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आत्म-बोध के 30th श्लोक में आचार्यश्री हमें बता रहे हैं की आत्मा को स्वप्रकाश जानने के बाद एवं उसको अन्य किसी प्रकाशक से प्रकाशित करने की अनावश्यकता देखने के बाद - हमें अपनी उपाधियों के साथ तादात्म्य को शनैः-शनैः बाधित करना चाहिए। इसको ही उपनिषदों में नेति-नेति की प्रक्रिया कहते हैं। रस्सी को रस्सी जानने के लिए पहले सर्प-बुद्धि समाप्त होनी चाहिए, उस…
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